गुरुवार, 26 मार्च 2009

शहर

इस बार गाँव का सफ़र,
कुछ नया सा लगा |
सब कुछ बदला हुआ,
बिलकुल मेरे बचपन की तरह |

अब रसोई में गैस आ गयी है उपले कि जगह,
बल्ब आ गये हैं लालटेन कि जगह |
क्रिकेट बॉल आ गये हैं कंचों कि जगह,
लालसाएँ आ गयी हैं, सपनों के जगह |
व्यापार आ गया है, रिश्तों के जगह,
और राजनीति आ गयी है, प्रेम के जगह |

अब लगता है,
मैं बड़ा हो गया हूं
और संग-संग बड़ा हो गया है,
मेरा गाँव भी |

मुझसे ज्यादा,
मेरी हैसियत को जाना जाने लगा है,
और मेरा गाँव,
'शहर' क नाम से पहचाना जाने लगा है |

सोमवार, 23 मार्च 2009

उड़ान

एक अकेली नाव,
बही जा रही है-
गहरे समुद्र में
चारों ओर,
पानी ही पानी |
कोई साथ नहीं,
किनारे का भी ,
कोई पता नहीं
दूर-दूर तक |


एक पत्ती आई है,
कहीं से उड़ते हुए,
और आकर बैठ गयी है,
उसी नाव में |
नाव खुश है,
उसके साथ कोई है |
और उससे भी अधिक,
खुशी है उसकी आत्मा में
कि वो मदद कर रहा है,
उस पत्ती की,
उसे किनारे तक पहुँचाने में,
उसे पानी में डूबने से बचाने में |

तेज आँधी चली है,
नाव ने संभाल लिया है,
अपने को,
पर पत्ती उड़ चली है,
दूर और दूर |
नाव ने अपनी गति बढ़ा ली है,
बिना खुद के उलटने की परवाह किए |
एक ही लक्ष्य है,
कि वो संभाल ले,
वो डूबने न दे,
उस पत्ती को,
गहरे रसातल में |

वो देख रहा है बहुत दूर से,
पत्ती उड़कर सुरक्षित पहुँच गयी है,
किनारे पर |
और उसने धीमी कर ली है,
अपनी गति फिर से |
चूर हो गये हैं,
उसके 'गुमान' और 'स्वाभिमान' दोनो ही |

अब जाने क्यों,
किनारा पास देखकर भी,
उसे जाने को मन नही करता |
जी में आता है की वो मंडराता रहे,
अकेला ही,
दूर-दूर तक फैले समुद्र में |