सोमवार, 8 जून 2009

भीष्म

बज चुकी हैं रणभेरियाँ
जारी है महाकाल का तांडव नर्तन
चारों ओर मचा है हाहाकार
लहू की प्यासी धरती
और उसे तृप्त करती सबकी विवशता |

विवशता मरने- मारने की,
क्यों -किसलिए ?
किसकी विवशता है ये
चुनौती देने वाले की
या चुनौती स्वीकारने वाले की |
शायद किसी की नहीं,
ये नरसंहार, ये प्रलय
ये तो परिणिति है
वर्षों से चले आ रहे संघर्षों की,
जो दुहराई जाती है
हर एक युग में
किसी सामयिक शक्तिशाली सिद्धांत की स्थापना हेतु |

जाने कौन विजयी होगा,
कौन-सा सिद्धांत जीतेगा
एक बात तो तय है
समय अपने साथ लिखकर जाएगा
एक अप्रिय इतिहास |
इतिहास जिससे अछूते नहीं रह पाएंगे
कोई सिद्धांतवादी, कोई विद्रोही
या कि कोई तटस्थ भी |

अब यहाँ कौन दोषी, कौन निर्दोष
कौन मित्र, कौन शत्रु
कौन प्रिय, कौन अप्रिय
कौन सज्जन, कौन दुर्जन
कौन भला, कौन बुरा
कौन परिचित, कौन अपरिचित
कौन कायर, कौन शूर
कौन बाल, कौन वृद्ध
सभी छुट रहे हैं धीरे-धीरे
और मैं मृत्यु शय्या पर पड़ा
नग्न आंखों से देख रहा हूँ
सब-कुछ खत्म होते हुए,
लाचार, असहाय, निस्तेज |