गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

साक्षी

परछाई ,
तू साक्षी है
उस निर्मम धूप की
जिसकी उष्मा में
मेरा स्वप्न झुलस कर रह गया

मैं लेटा था
जिन अपनों की छतरी के निचे
बेसुध,
वे धूप कड़ी होते ही
समेट लिए गए,
और मैं पड़ा रहा

आँखें तब खुलीं
जब घुटता हुआ पाया
अपनी आत्मा को,
अपने सपनों के जलने की बू से

नहीं परछाई

तुम्हें जरुरत नहीं

गवाह बनकर खड़े होने की

और उन्हें गलतियों का आभास कराने की,

क्योंकि मैं नहीं मिल पाऊँगा उनसे कभी,

हार-जीत के कटघरे में,

जिनसे रोज मिला करता था

प्यार-दुलार के आँगन में

मैं तो बस इतना चाहता हूँ

मेरी परछाई

की आगे से जब भी मैं भटकूँ

किसी छाया की तलाश में

धुप से बचने के लिए,

तो तेरा होना

मुझे निरंतर याद दिलाता रहे

फर्क -

सच और झूठ का,

यथार्थ और स्वप्न का,

परछाई और छाया का

- राजेश 'आर्य'