बुधवार, 7 अप्रैल 2010

'आलू का भरता'

वो 'एकमात्र' विद्यालय
जब माँ दिया करती थी टिफिन
कि खा लेना जब मध्यावकाश हो |

'एकमात्र' क्योंकि
कभी फिर ऐसा संजोग ही नहीं बना
कि जब मेरा विद्यालय घर से दूर हो,
या माँ मेरे पास हो,
या फिर मैं इतना छोटा होऊं
कि 'भूख' बर्दास्त न कार पाऊं |

उस 'एकमात्र' विद्यालय की
कई धुंधली सी यादों में
अगर कुछ 'स्पष्ट' है
तो वह है
वो आलू का 'भरता'
जिसे वह हर रोज लाया करती थी
और जिसे मैं हर रोज खा लिया करता था
उसे अपने टिफिन की सब्जी थमाकर |

मुझे अब तो यह भी याद नहीं
कि वह जो इसे रोज-रोज लाया करती थी
वो कौन थी या अब कौन है ?
संभवतः उसे भी अब याद न होगा |

पर मोहवश, भावनावश या वासनावश
कभी-कभी बरबस ही याद हो आती है
उस आलू के भरते की
और फिर कोशिश करता हूँ
उस 'सहपाठिनी' का प्रतिबिम्ब बनाने की
अपनी यादों के आड़े-तिरछे कोने जोड़कर |

संभवतः वो सचमुच सुन्दर होगी,
या फिर मुझे सुन्दर लगती होगी,
या फिर मुझे भरता अच्छा लगता होगा,
या फिर वो बहुत प्यार करती होगी
कुछ ठीक - ठीक कह नहीं सकता |

खैर अब यह बचपन की यादें
चिपक चुकी हैं कहीं ना कहीं
मेरी आत्मा के साथ
एक संस्कार का रूप लेकर -

बस कमी है तो -
एक दूर 'विद्यालय' की,
एक पास 'माँ' की,
एक प्यारी 'सहपाठिनी' की,
और एक निश्छल बचपन की |

बुधवार, 30 दिसंबर 2009

वो आई और चली गयी

एक हवा का झोंका आया
कहते हैं 'नया' संदेशा लाया ?
पर जब भी देखा, पाया मैंने
पुरवाई पश्चिम की ही गली गयी
वो आई और चली गयी |

बाज़ार बढ़ गए नए मशीनों के,
किसे फिक्र इंसानी करीनों के |
इन इंसानों के वहशियत में
जाने कितनी 'रुचिका' और बलि गयी
वो आई और चली गयी |

मिला कर्णधारों को सुअवसर,
भाषा-क्षेत्र-प्रान्त के नाम पर |
कथित सम्माननीय राष्ट्रभाषा भी,
राजनीति के पैरों मली गयी |
वो आई और चली गयी |

प्रकृति नाराज हुई फिर हमपर,
कहीं फ्लू कहीं बाढ़ का कहर |
हर साँस जूझते-जूझते भी,
जाने कितनी जानें चली गयी |
वो आई और चली गयी |

चिंता उठी 'धरती' की फिर,
सुलझाने जुटे धीर-गंभीर |
जिसने चाहा जितना साधा,
प्रकृति पर फिर से 'छली' गयी |
वो आई और चली गयी |

क्या कुछ बचा है बताने को,
दिल रो रहा, है कौन समझाने को |
किसको भूलूं , किसको बिसरूं ,
इक याददाश्त बची थी, भली गयी |
वो आई और चली गयी |

[ Bye-bye 2009, Welcome 2010 !! Hope we will something really new in you, Something really positive, Something that can save our race, Something that make me to change theme when I write in 2010 ]

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

जीवन जैसा मैं देखता हूँ

जीवन
रंगीन चश्मे से झांकता स्वप्न
या
अंधी आँखों का यथार्थ |

जीवन -
'जी' लेने को अंधाधुंध दौड़
या
चार पहियों पर चलता अपाहिज |

जीवन
कुदरत के भेजे कुछ सुन्दर फूल
या
बेरुखी से फ़ेंक दिए गए अनगिनत कंकड़ |

जीवन
एक बेबाक व्याख्या
या
परिभाषा को तरसता 'पद' |

सुना है कल रात,
चौराहे ने एक जीवन को लील लिया |
सुना है वो कोशिश कर रहा था
कोई नयी परिभाषा बनाने की |

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

गुजारिश

ज़िन्दगी यूँ दौडी कि कौन, कब, कहाँ याद रहे,
न तो जमीं याद रही ना आसमा याद रहे |
इक तकल्लुफ देना ज़िन्दगी मेरी साँसों को,
वो जब भी उठे, मेरे दोनों जहाँ याद रहे |

जो भटक जाऊँ कभी अपने पथ से,
मुझे उनके पैरों के निशाँ याद रहे |
भूल जाऊँ चाहे अपनी मंजिल कहीं,
पर संग मेरे चला कुछ देर, वो कारवां याद रहे |

चाहे सुबह हो जाए, मेरे पहुँचने से पहले
पर रात भर को पिघली, जीवन में वो शमां याद रहे |
खुदा माफ़ करे जो भूल जाऊँ मैं दोस्तों को,
पर हर राह पर मिले वो मेहरबां याद रहे |

मैं चाहे खो जाऊँ उसकी चकाचौंध में,
पर अपने सिद्धांतों कि वो दरम्यान याद रहे |
जो छाने लगे कभी, मुझ पर ग़म का अँधेरा
हर आंसू के पहले, मुझे मेरी खुशियाँ याद रहे |

मैं मालिक बन जाऊँ भले कई महलों का,
पर सर छुपाने को थी जो, वो तीन कोठरियां याद रहे |
हो जाऊँ आदी अगर मैं, कभी मीठे पानी का
बचपन से प्यास बुझाती, वो गाँव का कुआँ याद रहे |

लाख दूर चला जाऊँ चाहे मैं उसकी नजर से,
पर आँगन में बाट जोहती वो बूढी माँ याद रहे |
या खुदा, भेज दे मुझे तू जहाँ चाहे, तेरी मर्जी
पर कर इतना करम कि मुझे मेरा हिन्दुस्तां याद रहे |

रविवार, 23 अगस्त 2009

मेरा पुनर्जन्म होगा

हाँ मेरा पुनर्जन्म होगा
क्योंकि कुछ खुशियाँ रह गई हैं
बस चेहरे पर तैरते-तैरते |
क्योंकि कुछ बाकी रह गए हैं आंसू
आंखों से निकलने |
क्योंकि मेरे आँख मूंदने से ठीक पहले तक
कुछ सपने साफ़ छलक रहे थे उनमे |

मेरा पुनर्जन्म होगा
चाहे मेरे धर्मग्रन्थ
नकारते-स्वीकारते रहें इस सिद्धांत को
या कि विज्ञान जूझता रहे
इसे सिद्ध -असिद्ध करने को |
और इन सबसे परे
मेरी इच्छाशक्ति मुझे वापस लेकर आएगी, आती रहेगी
मेरे लक्ष्य मिलने तक |


मेरा पुनर्जन्म होगा
क्योंकि मैं स्वयं लिखूंगा अपना भविष्य
अपनी चिताओं से उठती लहरों से |

चुनौती है उस नियामक सत्ता को
कि मेरा पुनर्जन्म होगा
हर बार, हर मृत्यु के बाद
जब तक कि
मेरी आँखों में तैरते स्वप्न
यथार्थ न हो जायें |
जब तक कि
मेरे मन में उमड़ता भविष्य
मेरा वर्तमान न हो हो जाए |

चुनौती है कि
वो मिटा दें मेरे लक्ष्य को
मेरे भाग्य से |

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

विसर्जन

मुझे आज भी याद है अच्छी तरह
बालकोनी पर खड़ा मैं
अपनी माँ का आँचल पकड़े
और निचे सड़क पर
एक लम्बी सी रेंगती कतार
जोर-२ से चिल्लाते हुए -
"नमो नमस्ते, जगदम्बे भसते"
और पीछे माँ दुर्गे की विलक्षण प्रतिमा
दस कन्धों पर विराजमान |

माँ ने कहा -
"बेटा ! ध्यान से देख
मूर्ति की आंखों में,
तुझे कुछ दीख रहा है |"
मैंने देखा और
आँखों में आंसू छलक आए,
रुन्घते हुए स्वर से पूछा -
"दुर्गा माँ क्यों रो रही हैं"

माँ ने मेरे आंसू पोछे और कहा -
"बेटा! वो तो माँ हैं न
दस दिनों से तुम्हारे साथ थी
और अब जा रही है
अपने प्यारे बेटे से दूर होकर |
इसलिए वो रो रही है "

मैंने समझा -
माँ रोती है,
जब 'प्यारा' बेटा दूर होता है उससे |
क्या बेटे को भी होती है
इतनी ही पीड़ा |

-------------------------------------------------------

बहुत आसानी से छोड़ दिया मैंने
अपनी जन्म देनी वाली माँ को -
अपने पेट के लिए |
अपनी संस्कृति माँ को -
आधुनिक समाज में
अपने तथाकथित 'रुतबे' के लिए |
और शायद इतनी ही आसानी से छोड़ दूंगा मैं
अपनी भारत माँ को
अपने महत्वाकांक्षी सपनों के लिए |

विसर्जित तो कर चुका हूँ
अपनी आत्मा को, अपनी भावनाओं को
इन मशीनों को बीच |
इससे पहले की विसर्जित कर दूँ
अपने आप को भी
इस अंधाधुंध भीड़ में,
माँ ! वापस लौटा ले मुझे
उसी बचपन में |
कसम है तुझे
अगर तू यह नहीं कर पाई
तो दुनिया की कोई ताकत
मुझे लौटा नहीं सकती |

सोमवार, 8 जून 2009

भीष्म

बज चुकी हैं रणभेरियाँ
जारी है महाकाल का तांडव नर्तन
चारों ओर मचा है हाहाकार
लहू की प्यासी धरती
और उसे तृप्त करती सबकी विवशता |

विवशता मरने- मारने की,
क्यों -किसलिए ?
किसकी विवशता है ये
चुनौती देने वाले की
या चुनौती स्वीकारने वाले की |
शायद किसी की नहीं,
ये नरसंहार, ये प्रलय
ये तो परिणिति है
वर्षों से चले आ रहे संघर्षों की,
जो दुहराई जाती है
हर एक युग में
किसी सामयिक शक्तिशाली सिद्धांत की स्थापना हेतु |

जाने कौन विजयी होगा,
कौन-सा सिद्धांत जीतेगा
एक बात तो तय है
समय अपने साथ लिखकर जाएगा
एक अप्रिय इतिहास |
इतिहास जिससे अछूते नहीं रह पाएंगे
कोई सिद्धांतवादी, कोई विद्रोही
या कि कोई तटस्थ भी |

अब यहाँ कौन दोषी, कौन निर्दोष
कौन मित्र, कौन शत्रु
कौन प्रिय, कौन अप्रिय
कौन सज्जन, कौन दुर्जन
कौन भला, कौन बुरा
कौन परिचित, कौन अपरिचित
कौन कायर, कौन शूर
कौन बाल, कौन वृद्ध
सभी छुट रहे हैं धीरे-धीरे
और मैं मृत्यु शय्या पर पड़ा
नग्न आंखों से देख रहा हूँ
सब-कुछ खत्म होते हुए,
लाचार, असहाय, निस्तेज |