बुधवार, 7 अप्रैल 2010

'आलू का भरता'

वो 'एकमात्र' विद्यालय
जब माँ दिया करती थी टिफिन
कि खा लेना जब मध्यावकाश हो |

'एकमात्र' क्योंकि
कभी फिर ऐसा संजोग ही नहीं बना
कि जब मेरा विद्यालय घर से दूर हो,
या माँ मेरे पास हो,
या फिर मैं इतना छोटा होऊं
कि 'भूख' बर्दास्त न कार पाऊं |

उस 'एकमात्र' विद्यालय की
कई धुंधली सी यादों में
अगर कुछ 'स्पष्ट' है
तो वह है
वो आलू का 'भरता'
जिसे वह हर रोज लाया करती थी
और जिसे मैं हर रोज खा लिया करता था
उसे अपने टिफिन की सब्जी थमाकर |

मुझे अब तो यह भी याद नहीं
कि वह जो इसे रोज-रोज लाया करती थी
वो कौन थी या अब कौन है ?
संभवतः उसे भी अब याद न होगा |

पर मोहवश, भावनावश या वासनावश
कभी-कभी बरबस ही याद हो आती है
उस आलू के भरते की
और फिर कोशिश करता हूँ
उस 'सहपाठिनी' का प्रतिबिम्ब बनाने की
अपनी यादों के आड़े-तिरछे कोने जोड़कर |

संभवतः वो सचमुच सुन्दर होगी,
या फिर मुझे सुन्दर लगती होगी,
या फिर मुझे भरता अच्छा लगता होगा,
या फिर वो बहुत प्यार करती होगी
कुछ ठीक - ठीक कह नहीं सकता |

खैर अब यह बचपन की यादें
चिपक चुकी हैं कहीं ना कहीं
मेरी आत्मा के साथ
एक संस्कार का रूप लेकर -

बस कमी है तो -
एक दूर 'विद्यालय' की,
एक पास 'माँ' की,
एक प्यारी 'सहपाठिनी' की,
और एक निश्छल बचपन की |