गुरुवार, 23 जुलाई 2009

विसर्जन

मुझे आज भी याद है अच्छी तरह
बालकोनी पर खड़ा मैं
अपनी माँ का आँचल पकड़े
और निचे सड़क पर
एक लम्बी सी रेंगती कतार
जोर-२ से चिल्लाते हुए -
"नमो नमस्ते, जगदम्बे भसते"
और पीछे माँ दुर्गे की विलक्षण प्रतिमा
दस कन्धों पर विराजमान |

माँ ने कहा -
"बेटा ! ध्यान से देख
मूर्ति की आंखों में,
तुझे कुछ दीख रहा है |"
मैंने देखा और
आँखों में आंसू छलक आए,
रुन्घते हुए स्वर से पूछा -
"दुर्गा माँ क्यों रो रही हैं"

माँ ने मेरे आंसू पोछे और कहा -
"बेटा! वो तो माँ हैं न
दस दिनों से तुम्हारे साथ थी
और अब जा रही है
अपने प्यारे बेटे से दूर होकर |
इसलिए वो रो रही है "

मैंने समझा -
माँ रोती है,
जब 'प्यारा' बेटा दूर होता है उससे |
क्या बेटे को भी होती है
इतनी ही पीड़ा |

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बहुत आसानी से छोड़ दिया मैंने
अपनी जन्म देनी वाली माँ को -
अपने पेट के लिए |
अपनी संस्कृति माँ को -
आधुनिक समाज में
अपने तथाकथित 'रुतबे' के लिए |
और शायद इतनी ही आसानी से छोड़ दूंगा मैं
अपनी भारत माँ को
अपने महत्वाकांक्षी सपनों के लिए |

विसर्जित तो कर चुका हूँ
अपनी आत्मा को, अपनी भावनाओं को
इन मशीनों को बीच |
इससे पहले की विसर्जित कर दूँ
अपने आप को भी
इस अंधाधुंध भीड़ में,
माँ ! वापस लौटा ले मुझे
उसी बचपन में |
कसम है तुझे
अगर तू यह नहीं कर पाई
तो दुनिया की कोई ताकत
मुझे लौटा नहीं सकती |